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त्वम॑ग्नऽईडि॒तः क॑व्यवाह॒नावा॑ड्ढ॒व्यानि॑ सुर॒भीणि॑ कृ॒त्वी। प्रादाः॑ पि॒तृभ्यः॑ स्व॒धया॒ तेऽअ॑क्षन्न॒द्धि त्वं दे॑व॒ प्रय॑ता ह॒वीषि ॥६६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। अ॒ग्ने॒। ई॒डि॒तः। क॒व्य॒वा॒ह॒नेति॑ कव्यऽवाहन। अवा॑ट्। ह॒व्यानि॑। सु॒र॒भीणि॑। कृ॒त्वी। प्र। अ॒दाः॒। पि॒तृभ्य॒ इति॑ पि॒तृऽभ्यः॑। स्व॒धया॑। ते। अ॒क्ष॒न्। अ॒द्धि। त्वम्। दे॒व॒। प्रय॒तेति॒ प्रऽय॑ता। ह॒वीषि॑ ॥६६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:66


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (कव्यवाहन) कवियों के प्रगल्भतादि कर्मों को प्राप्त हुए (अग्ने) अग्नि के समान पवित्र विद्वन् ! पुत्र ! (ईडितः) प्रशंसित (त्वम्) तू (सुरभीणि) सुगन्धादि युक्त (हव्यानि) खाने के योग्य पदार्थ (कृत्वी) कर के (अवाट्) प्राप्त करता है, उनको (पितृभ्यः) पितरों के लिये (प्रादाः) दिया कर। (ते) वे पितर लोग (स्वधया) अन्नादि के साथ इन पदार्थों का (अक्षन्) भोग किया करें। हे (देव) विद्वन् दातः ! (त्वम्) तू (प्रयता) प्रयत्न से साधे हुए (हवींषि) खाने के योग्य अन्नों को (अद्धि) भोजन किया कर ॥६६ ॥
भावार्थभाषाः - पुत्रादि सब लोग अच्छे संस्कार किये हुए सुगन्धादि से युक्त अन्न-पानों से पितरों को भोजन कराके आप भी इन अन्नों का भोजन करें, यही पुत्रों की योग्यता है। जो अच्छे संस्कार किये हुए अन्न-पानों को करते हैं, वे रोगरहित होकर शतवर्ष पर्यन्त जीते हैं ॥६६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(त्वम्) (अग्ने) पावक इव पवित्र (ईडितः) प्रशंसितः (कव्यवाहन) कवीनां प्रागल्भ्यानि कर्माणि प्राप्त (अवाट्) वहसि (हव्यानि) अत्तुमर्हाणि (सुरभीणि) सुगन्धादियुक्तानि (कृत्वी) कृत्वा। स्नात्व्यादयश्च। (अष्टा०७.१.४९) (प्र) (अदाः) प्रदेहि (पितृभ्यः) (स्वधया) अन्नेन सह (ते) (अक्षन्) अदन्तु (अद्धि) भुङ्क्ष्व (त्वम्) (देव) दातः (प्रयता) प्रयत्नेन साधितानि (हवींषि) आदातुमर्हाणि ॥६६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे कव्यवाहनाग्ने विद्वन् ! पुत्र ! ईडितस्त्वं सुरभीणि हव्यानि कृत्व्यवाट् तानि पितृभ्यः प्रादास्ते पितरः स्वधया सहैतान्यक्षन्। हे देव ! त्वं प्रयत हवींष्यद्धि ॥६६ ॥
भावार्थभाषाः - पुत्रादयः सर्वे सुसंस्कृतैः सुगन्धादियुक्तैरन्नपानैः पितॄन् भोजयित्वा स्वयमेतानि भुञ्जीरन्नियमेव पुत्राणां योग्यतास्ति। ये सुसंस्कृतान्नपाने कुर्वन्ति, तेऽरोगाः शतायुषो भवन्ति ॥६६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - उत्तम प्रक्रिया केलेले अन्न पुत्रांनी पितरांना खाऊ घालावे व स्वतःही खावे. हे त्यांचे पुत्रत्व होय. जे उत्तम अन्न खातात ते रोगरहित होऊन शंभर वर्षे जगतात.